गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

हिन्दू मंदिर के 10 रहस्य जानकर आप रह जाएंगे हैरान

।।ॐ।। ।।यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।। -
अथर्ववेद 10-8-1
भावार्थ : जो भूत, भविष्य और सब में व्यापक है, जो
दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म
(परमेश्वर) को प्रणाम है। वही हम सब के
लिए प्रार्थनीय और वही हम सबके
लिए पूज्यनीय है।
हिन्दुओं ने मंदिर बनाकर कब से पूजा और प्रार्थना करना शुरू
किया? आखिर हिन्दू मंदिर निर्माण की शुरुआत कब
हुई और क्यों? मंदिर की प्राचीनता के
प्रमाण क्या हैं? क्या प्राचीनकाल में हिन्दू मंदिरों
में मूर्ति की पूजा होती थी?
नहीं होती थी तो फिर मंदिर
में क्या होता था?
वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति। वैदिक
समाज इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर
खड़े रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव
व्यक्त करते थे। इसके अलावा वे यज्ञ के द्वारा
भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और
प्रार्थना करते थे। शिवलिंग की पूजा का प्रचलन
प्राचीनकाल से ही होता आ रहा है।
शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग
और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिन्दू-जैन धर्म
में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर
की मूर्तियों को अपार जन-समर्थन मिलने के कारण
राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने
लगीं।
माना जाता है कि प्राचीनकाल में देवी या
देवताओं के पूजास्थल अलग होते थे और प्रार्थना-ध्यान करने
के लिए स्थल अलग होते थे। वैदिक काल में वैदिक ऋषि जंगल
के अपने आश्रमों में ध्यान, प्रार्थना और यज्ञ करते थे।
हालांकि लोक जीवन में मंदिरों का महत्व उतना
नहीं था जितना आत्मचिंतन, मनन और शास्त्रार्थ
का था। फिर भी आम जनता इंद्र, विष्णु,
लक्ष्मी, शिव और पार्वती के अलावा
नगर, ग्राम और स्थान के देवी-देवताओं
की प्रार्थना करते थे। बहुत से अन्य समुदायों में
शिव और पार्वती के साथ यक्ष, नाग, पितर, ग्रह-
नक्षत्र आदि की पूजा का भी प्रचलन
था।
वैदिक काल में ही चार धाम और दुनियाभर में
ज्योतिर्लिंगों की स्थापना के साथ ही
प्रार्थना करने के लिए भव्य मंदिरों का निर्माण किया गया। समय-
समय पर इनका स्वरूप बदलता रहा और कर्मकांड
भी। आओ जानते हैं हिन्दू मंदिरों के बारे में
ऐसी जानकारी जिसे जानकर आप रह
जाएंगे हैरान!
मंदिर का अर्थ होता है- 'मन से दूर कोई स्थान'। मंदिर का
शाब्दिक अर्थ 'घर' है और मंदिर को 'द्वार' भी
कहते हैं, जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को 'आलय'
भी कह सकते हैं, ‍जैसे ‍कि शिवालय, जिनालय आदि।
लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है, वह मंदिर
तो उसके मायने बदल जाते हैं। यह ध्यान रखें कि मंदिर को
अंग्रेजी में 'मंदिर' ही कहते हैं
'टेम्पल' नहीं।
द्वारा किसी भगवान, देवता या गुरु का होता है,
आलय सिर्फ शिव का होता है और ‍मंदिर या स्तूप सिर्फ
ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त
सभी स्थान को 'मंदिर' कहा जाता है जिसमें कि
किसी देव मूर्ति की पूजा
होती है।
मन से दूर रहकर निराकार ईश्वर की आराधना या
ध्यान करने के स्थान को 'मंदिर' कहते हैं। जिस तरह हम
जूते उतारकर मंदिर में प्रवेश करते हैं उसी तरह
मन और अहंकार को भी बाहर छोड़ दिया जाता है।
जहां देवताओं की पूजा होती है उसे
'देवरा' या 'देव-स्थल' कहा जाता है। जहां पूजा
होती है उसे पूजास्थल, जहां प्रार्थना
होती है उसे प्रार्थनालय कहते हैं। वेदज्ञ
मानते हैं कि 'भगवान प्रार्थना से प्रसन्न होते हैं, पूजा से
नहीं।' पिरामिडनुमा होते हैं मंदिर : प्राचीनकाल से
ही किसी भी धर्म के लोग
सामूहिक रूप से एक ऐसे स्थान पर प्रार्थना करते रहे हैं,
जहां पूर्ण रूप से ध्यान लगा सकें, मन एकाग्र हो पाए या
ईश्वर के प्रति समर्पण भाव व्यक्त किया जाए
इसीलिए मंदिर निर्माण में वास्तु का बहुत ध्यान रखा
जाता है। यदि हम भारत के प्राचीन मंदिरों पर नजर
डालें तो पता चलता है कि सभी का वास्तुशिल्प
बहुत सुदृढ़ था। जहां जाकर आज भी शांति
मिलती है।
यदि आप प्राचीनकाल के मंदिरों की रचना
देखेंगे तो जानेंगे कि सभी कुछ-कुछ पिरामिडनुमा
आकार के होते थे। शुरुआत से ही हमारे
धर्मवेत्ताओं ने मंदिर की रचना पिरामिड आकार
की ही सोची है। ऋषि-
मुनियों की कुटिया भी उसी
आकार की होती थी। हमारे
प्राचीन मकानों की छतें भी
कुछ इसी तरह की होती
थीं। बाद में रोमन, चीन, अरब और
यूनानी वास्तुकला के प्रभाव के चलते मंदिरों के वास्तु
में परिवर्तन होता रहा।
मंदिर पिरामिडनुमा और पूर्व, उत्तर या ईशानमुखी
होता है। कई मंदिर पश्चिम, दक्षिण, आग्नेय या
नैऋत्यमुखी भी होते हैं, लेकिन क्या
हम उन्हें मंदिर कह सकते हैं? वे या तो शिवालय होंगे या
फिर समाधिस्थल, शक्तिपीठ या अन्य कोई
पूजास्थल।
मंदिर के मुख्यत: उत्तर या ईशानमुखी होने के
पीछे कारण यह है कि ईशान से आने
वाली ऊर्जा का प्रभाव ध्यान-प्रार्थना के लिए
अतिउत्तम माहौल निर्मित करता है। मंदिर
पूर्वमुखी भी हो सकता है किंतु फिर
उसके द्वार और गुंबद की रचना पर विशेष ध्यान
दिया जाता है।
प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन
मंदिर के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां
आवेष्टित की जाती थीं।
मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप
खजुराहो, अजंता-एलोरा, कोणार्क या दक्षिण के
प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान
जाएंगे कि मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने
वाली पूरी जमात जब खत्म हो गई है
तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बढ़ा। पूजा-पाठ के
प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने
मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि
कर्मकांडों का जन्म हुआ, जो वेदसम्मत नहीं माने
जा सकते।
धरती के दो छोर हैं- एक उत्तरी ध्रुव
और दूसरा दक्षिणी ध्रुव। उत्तर में मुख करके
पूजा या प्रार्थना की जाती है इसलिए
प्राचीन मंदिर सभी मंदिरों के द्वार
की दिशा पर विशेष ध्यान दिया जाता है पूर्व और
उत्तर के बीच या पूर्व में होते थे। हमारे
प्राचीन मंदिर वास्तुशास्त्रियों ने ढूंढ-ढूंढकर
धरती पर ऊर्जा के सकारात्मक केंद्र ढूंढे और वहां
मंदिर बनाए।
मंदिर की घंटी (bells) : मंदिर में
घंटी लगाने का प्रचलन भी बहुत
प्राचीनकाल से शुरू हो चुका था। इसका प्रमाण कई
प्राचीन मंदिरों की दीवारों पर
बनी मूर्तियां, भित्तिचित्र आदि से ज्ञात हो सकता
है।
घंटी लगाने के दो कारण थे- पहला घंटी
बजाकर सभी को प्रार्थना के लिए बुलाना और
सकारात्मक वातावरण का निर्माण करना। जब सृष्टि का प्रारंभ
हुआ तब जो नाद था, घंटी की ध्वनि को
उसी नाद का प्रतीक माना जाता है।
यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी
जाग्रत होता है।
जिन स्थानों पर घंटी बजने की आवाज
नियमित आती है, वहां का वातावरण हमेशा शुद्ध
और पवित्र बना रहता है। इससे नकारात्मक शक्तियां
हटती हैं। नकारात्मकता हटने से समृद्धि के द्वार
खुलते हैं। प्रात: और संध्या को ही
घंटी बजाने का नियम है, वह भी
लयपूर्ण। घंटी या घंटे को काल का
प्रतीक भी माना गया है। ऐसा माना जाता
है कि जब प्रलयकाल आएगा, तब भी
इसी प्रकार का नाद यानी आवाज प्रकट
होगी।
ऊर्जा के केंद्र मंदिर : अनेक प्राचीन मंदिर ऐसे
स्थलों या पर्वतों पर बनाए गए हैं, जहां से
चुंबकीय तरंगें घनी होकर
गुजरती हैं। इस तरह के स्थानों पर बने मंदिरों में
प्रतिमाएं ऐसी जगह रखी
जाती थीं, जहां चुंबकत्व का प्रभाव
ज्यादा हो। यहीं पर तांबे का छत्र और तांबे के पाट
रखे होते थे और आज भी कुछ स्थानों पर रखे
हैं। तांबा बिजली और चुंबकीय तरंगों को
अवशोषित करता है। इस प्रकार जो भी व्यक्ति
प्रतिदिन मंदिर जाकर इस मूर्ति की घड़ी
के चलने की दिशा में परिक्रमा करता है, वह इस
एनर्जी को अवशोषित कर लेता है। इससे उसको
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य लाभ मिलता है।
हालांकि यह एक धीमी प्रक्रिया
मानी जा सकती है लेकिन इससे
मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है।
इसके अलावा प्रतिमा के समक्ष प्रज्वलित दीपक
ऊष्मा की ऊर्जा का वितरण करता है एवं शंख-
घंटियों की ध्वनि तथा लगातार होते रहने वाले
मंत्रोच्चार से एक ब्रह्मांडीय नाद बनता है तो मन
और मस्तिष्क को नियंत्रित कर ध्यानपूर्ण बना देता है।
मंत्रमुग्ध हो जाने के मतलब ही
यही है। इसके अलावा मंदिरों में तांबे के एक पात्र
में तुलसी और कपूर-मिश्रित जल भरा होता है
जिसका सेवन करने से जहां रोग-प्रतिरोधक क्षमता
बढ़ती है वहीं इससे ब्रह्म-रन्ध्र
में शांति मिलती है। इस तरह के मंदिरों में यदि आप
पवित्र होकर पवित्र भावना से जाएं और प्रार्थना करेंगे तो
आपकी मांग जरूर पूरी
होती।
मंदिर में शिखर होते हैं। शिखर की
भीतरी सतह से टकराकर ऊर्जा तरंगें
व ध्वनि तरंगें व्यक्ति के ऊपर पड़ती हैं। ये
परावर्तित किरण तरंगें मानव शरीर आवृत्ति बनाए
रखने में सहायक होती हैं। व्यक्ति का
शरीर इस तरह से धीरे-
धीरे मंदिर के भीतरी
वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस तरह मनुष्य
असीम सुख का अनुभव करता है।
पुराने मंदिर सभी धरती के धनात्मक
(पॉजीटिव) ऊर्जा के केंद्र हैं। ये मंदिर
आकाशीय ऊर्जा के केंद्र में स्थित हैं।
उदाहरणार्थ उज्जैन का महाकाल मंदिर कर्क रेखा पर स्थित
है। ऐसे धनात्मक ऊर्जा के केंद्र पर जब व्यक्ति मंदिर में नंगे
पैर जाता है तो इससे उसका शरीर अर्थ हो जाता
है और उसमें एक ऊर्जा प्रवाह दौड़ने लगता है। वह
व्यक्ति जब मूर्ति के जब हाथ जोड़ता है तो शरीर
का ऊर्जा चक्र चलने लगता है। जब वह व्यक्ति सिर झुकाता
है तो मूर्ति से परावर्तित होने वाली
पृथ्वी और आकाशीय तरंगें मस्तक पर
पड़ती हैं और मस्तिष्क पर मौजूद आज्ञा चक्र
पर असर डालती हैं। इससे शांति मिलती
है तथा सकारात्मक विचार आते हैं जिससे दुख-दर्द कम होते
हैं और भविष्य उज्ज्वल होता है।
* रामायण काल में मंदिर होते थे, इसके प्रमाण हैं। राम का काल
आज से 7129 वर्ष पूर्व था अर्थात 5114
ईस्वी पूर्व। राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग
की स्थापना की थी। इसका
मतलब यह कि उनके काल से ही शिवलिंग
की पूजा की परंपरा रही
है। राम के काल में सीता द्वारा गौरी पूजा
करना इस बात का सबूत है कि उस काल में देवी-
देवताओं की पूजा का महत्व था और उनके घर से
अलग पूजास्थल होते थे।
* महाभारत में दो घटनाओं में कृष्ण के साथ रुक्मणि और
अर्जुन के साथ सुभद्रा के भागने के समय दोनों ही
नायिकाओं द्वारा देवी पूजा के लिए वन में स्थित
गौरी माता (माता पार्वती) के मंदिर
की चर्चा है। इसके अलावा युद्ध की
शुरुआत के पूर्व भी कृष्ण पांडवों के साथ
गौरी माता के स्थल पर जाकर उनसे
विजयी होने की प्रार्थना करते हैं।
* प्राप्त प्रमाणों के अनुसार बिहार के कैमूर जिले के भगवानपुर
अंचल में पवरा पहाड़ी पर 608 फीट
की ऊंचाई पर मुंडेश्वरी देवी
का मंदिर स्थित है। इसे देश का सबसे प्राचीन मंदिर
माना जाता है। इसकी स्थापना 108
ईस्वी में हुविश्क के शासनकाल में हुई
थी। यहां शिव और पार्वती
की पूजा होती है। इसके अलावा
अधिकतर मंदिरों का निर्माण काल मौर्य और गुप्त काल के दौरान
का है। बहुत कम मंदिर ही बचे हैं, जो
द्वापरयुगीन अर्थात पांडवकाल के हैं।
* देश में सबसे प्राचीन शक्तिपीठों और
ज्योतिर्लिंगों को माना जाता है। इन सभी का समय-
समय पर जीर्णोद्धार किया गया।
प्राचीनकाल में यक्ष, नाग, शिव, दुर्गा, भैरव, इंद्र
और विष्णु की पूजा और प्रार्थना का प्रचलन था।
बौद्ध और जैन काल के उत्थान के दौर में मंदिरों के निर्माण पर
विशेष ध्यान दिया जाने लगा।
* विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर अब सिर्फ कंबोडिया के
अंकोरवाट में ही बचा हुआ है। अंकोर का पुराना
नाम 'यशोधरपुर' था। इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन
द्वितीय (1112-53 ई.) के शासनकाल में हुआ
था। यह विष्णु मंदिर है जबकि इसके पूर्ववर्ती
शासकों ने प्रायः शिव मंदिरों का निर्माण किया था।
* साउथ अफ्रीका के सुद्वारा नामक एक गुफा में
पुरातत्वविदों को महादेव की 6000 वर्ष
पुरानी शिवलिंग की मूर्ति मिली
जिसे कठोर ग्रेनाइट पत्थर से बनाया गया है। इस शिवलिंग को
खोजने वाले पुरातत्ववेत्ता हैरान हैं कि यह शिवलिंग यहां
अभी तक सुरक्षित कैसे रहा?
* सोमनाथ के मंदिर के होने का उल्लेख ऋग्वेद में
भी मिलता है। इससे यह सिद्ध होता है भारत में
मंदिर परंपरा कितनी पुरानी
रही है। इतिहासकार मानते हैं कि ऋग्वेद
की रचना 7000 से 1500 ईसा पूर्व हई
थी अर्थात आज से 9 हजार वर्ष पूर्व। यूनेस्को
ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ईपू
की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों
की सूची में शामिल किया है।
उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158
सूची में भारत की महत्वपूर्ण
पांडुलिपियों की सूची 38 है।
* विश्व का प्रथम ग्रेनाइट मंदिर तमिलनाडु के तंजौर में
बृहदेश्वर मंदिर है। इसका निर्माण 1003- 1010 ई. के
बीच चोल शासक राजाराज चोल 1 ने करवाया था। इस
मंदिर के शिखर ग्रेनाइट के 80 टन के टुकड़े से बने हैं। यह
भव्य मंदिर राजाराज चोल के राज्य के दौरान केवल 5 वर्ष
की अवधि में (1004 एडी और 1009
एडी के दौरान) निर्मित किया गया था।
* तिरुपति शहर में बना विष्णु मंदिर 10वीं
शताब्दी के दौरान बनाया गया था। यह विश्व का सबसे
बड़ा धार्मिक गंतव्य है। रोम या मक्का जैसे धार्मिक स्थलों से
भी बड़े इस स्थान पर प्रतिदिन औसतन 30 हजार
श्रद्धालु आते हैं और लगभग लाखों रुपए प्रतिदिन चढ़ावा आता
है। कई शताब्दी पूर्व बना यह मंदिर दक्षिण
भारतीय वास्तुकला और शिल्पकला का अद्भुत
उदाहरण है। माना जाता है कि इस मंदिर का साया
नहीं नजर आता।
* विश्व का सबसे पुराना शहर : वाराणसी, जिसे
'बनारस' के नाम से भी जाना जाता है, एक
प्राचीन शहर है। भगवान बुद्ध ने 500
बीसी में यहां आगमन किया था और
यह आज विश्व का सबसे पुराना और निरंतर आगे बढ़ने वाला
शहर है। इसके बाद अयोध्या और मथुरा का नंबर आता है।
* काशी, अयोध्या, मथुरा और आगरा जैसे कई स्थान
हैं, जहां पर हिन्दुओं के मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई जाने
का प्रमाण मौजूद हैं। कई इतिहासकार मानते हैं कि ताजमहल
पहले 'तेजो महालय' था जिसमें शिवलिंग स्थापित था।
* हिन्दू मंदिरों को खासकर बौद्ध, चाणक्य और गुप्तकाल में
भव्यता प्रदान की जाने लगी और जो
प्राचीन मंदिर थे उनका पुनर्निर्माण किया गया।
दक्षिण भारत में ज्यादातर मंदिरों का अस्तित्व बरकरार है। यहां
के मंदिरों की स्थापत्य कला और वास्तुशिल्प अद्भुत
है। ये सभी मंदिर ज्योतिष, वास्तु और धर्म के
नियमों को ध्यान में रखकर बनाए गए थे। अधिकतर मंदिर कर्क
रेखा या नक्षत्रों के ठीक ऊपर बनाए गए थे। उनमें
से भी एक ही काल में बनाए गए
सभी मंदिर एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।
प्राचीन मंदिर ऊर्जा और प्रार्थना के केंद्र थे लेकिन
आजकल के मंदिर तो पूजा-आरती के केंद्र हैं।
* चीन के इतिहासकारों के अनुसार चीन
के समुद्र से लगे औद्योगिक शहर च्वानजो में और उसके चारों
ओर का क्षेत्र कभी हिन्दुओं का
तीर्थस्थल था। वहां 1,000 वर्ष पूर्व के निर्मित
हिन्दू मंदिरों के खंडहर पाए गए हैं। इसका सबूत
चीन के समुद्री संग्रहालय में
रखी प्राचीन मूर्तियां हैं। वर्तमान में
चीन में कोई हिन्दू मंदिर तो नहीं है,
लेकिन 1,000 वर्ष पहले सुंग राजवंश के दौरान दक्षिण
चीन के फुच्यान प्रांत में इस तरह के मंदिर थे
लेकिन अब सिर्फ खंडहर बचे हैं।
* मध्यकाल में मुस्लिम आक्रांताओं ने जैन, बौद्ध और हिन्दू
मंदिरों को बड़े पैमाने पर ध्वस्त कर दिया। मलेशिया, इंडोनेशिया,
अफगानिस्तान, ईरान, तिब्बत, पाकिस्तान, बांग्लादेश,
श्रीलंका, कंबोडिया आदि मुस्लिम और बौद्ध राष्ट्रों में
अब हिन्दू मंदिर नाममात्र के बचे हैं। अब ज्यादातर
प्राचीन मंदिरों के बस खंडहर ही
नजर आते हैं, जो सिर्फ पर्यटकों के देखने के लिए
ही रह गए हैं। अधिकतर का तो अस्तित्व
ही मिटा दिया गया है।
मंदिर के नियम : सभी धर्मों के अपने-अपने
प्रार्थनाघर होते हैं। उन प्रार्थना स्थलों में जाने का वार और
समय नियुक्त है। बौद्ध विहार, सिनेगॉग, चर्च, मस्जिद और
गुरुद्वारे में प्रार्थना करने के लिए निश्चित वार और समय
नियुक्त है, क्या उसी तरह हिन्दू मंदिर में
भी निश्चित वार और समय नियुक्त हैं? इसके
अलावा क्या है हिन्दू मंदिरों में जाने के नियम?
बहुत से लोग मंदिर में वार्तालाप करते हैं, मोबाइल अटेंड करते
हैं और मोजे पहनकर ही चले जाते हैं। वे हाथ
जोड़कर खड़े रहते हैं लेकिन ध्यान कहीं ओर
होता है। आरती को अधूरी
ही छोड़कर चले जाते हैं। इसके अलावा
भी ऐसी कई बातें हैं, जो मंदिर नियमों के
विरुद्ध है। इस तरह के कृत्यों से न देवता प्रसन्न होते हैं
और न आपकी मांगें पूरी
होती है। भले ही आप निष्पाप हो या
पवित्र कर्म करने वाले हो, लेकिन आप मंदिर-
अपराधी अवश्य माने जाएंगे।
भविष्य पुराण के अनुसार जब पूजा की जाए तो
आचमन पूरे विधान से करना चाहिए। जो विधिपूर्वक आचमन
करता है, वह पवित्र हो जाता है। सत्कर्मों का
अधिकारी होता है। आचमन की विधि
यह है कि हाथ-पांव धोकर पवित्र स्थान में आसन के ऊपर
पूर्व से उत्तर की ओर मुख करके बैठें। दाहिने
हाथ को जानु के अंदर रखकर दोनों पैरों को बराबर रखें। फिर जल
का आचमन करें।
आचमन करते समय हथेली में 5
तीर्थ बताए गए हैं- 1. देवतीर्थ, 2.
पितृतीर्थ, 3. ब्रह्मातीर्थ, 4.
प्रजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ,
कनिष्ठा के मूल में प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के
अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और
अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के
मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में
प्रशस्त माना गया है। आचमन हमेशा
ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से
पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ
करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से
महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।
पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से
यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की
तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने
अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की
तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को
अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों
के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के
स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती
हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल
मिलता है।
मंदिर के वार : शिव के मंदिर में सोमवार, विष्णु के मंदिर में रविवार,
हनुमान के मंदिर में मंगलवार, शनि के मंदिर में शनिवार और
दुर्गा के मंदिर में बुधवार और काली व
लक्ष्मी के मंदिर में शुक्रवार को जाने का उल्लेख
मिलता है। गुरुवार को गुरुओं का वार माना गया है। इस दिन
सभी गुरुओं के समाधि मंदिर में जाने का महत्व है।
रविवार और गुरुवार धर्म का दिन : विष्णु को देवताओं में सबसे
ऊंचा स्थान प्राप्त है और वेद अनुसार सूर्य इस जगत
की आत्मा है। शास्त्रों के अनुसार रविवार को
सर्वश्रेष्ठ दिन माना जाता है। रविवार (विष्णु) के बाद देवताओं
की ओर से होने के कारण बृहस्पतिवार (देव गुरु
बृहस्पति) को प्रार्थना के लिए सबसे अच्छा दिन माना गया है।
गुरुवार क्यों सर्वश्रेष्ठ? रविवार की दिशा पूर्व है
किंतु गुरुवार की दिशा ईशान है। ईशान में
ही देवताओं का स्थान माना गया है। यात्रा में इस
वार की दिशा पश्चिम, उत्तर और ईशान
ही मानी गई है। इस दिन पूर्व,
दक्षिण और नैऋत्य दिशा में यात्रा त्याज्य है। गुरुवार
की प्रकृति क्षिप्र है। इस दिन सभी
तरह के धार्मिक और मंगल कार्य से लाभ मिलता है अत:
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार यह दिन सर्वश्रेष्ठ माना गया है
अत: सभी को प्रत्येक गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए
और पूजा, प्रार्थना या ध्यान करना चाहिए।
मंदिर समय : हिन्दू मंदिर में जाने का समय होता है। सूर्य
और तारों से रहित दिन-रात की संधि को
तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। संध्या वंदन
को 'संध्योपासना' भी कहते हैं। संधिकाल में
ही संध्या वंदना की जाती
है। वैसे संधि 5 वक्त (समय) की
होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्याकाल- उक्त
2 समय की संधि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय
और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच,
आचमन, प्राणायाम आदि कर गायत्री छंद से निराकार
ईश्वर की प्रार्थना की जाती
है।
दोपहर 12 से अपराह्न 4 बजे तक मंदिर में जाना, पूजा,
आरती और प्रार्थना आदि करना निषेध माना गया है
अर्थात प्रात:काल से 11 बजे के पूर्व मंदिर होकर आ जाएं या
फिर अपराह्न काल में 4 बजे के बाद मंदिर जाएं।

संध्योपासना के 4 प्रकार हैं- (1) प्रार्थना, (2) ध्यान, (3)
कीर्तन और (4) पूजा-आरती। व्यक्ति
की जिसमें जैसी श्रद्धा है, वह वैसा
ही करता है।
पूजा-आरती : पूजा-आरती एक
रासायनिक क्रिया है। इससे मंदिर के भीतर वातावरण
की पीएच वैल्यू (तरल पदार्थ नापने
की इकाई) कम हो जाती है जिससे
व्यक्ति की पीएच वैल्यू पर असर
पड़ता है। यह आयनिक क्रिया है, जो शारीरिक
रसायन को बदल देती है। यह क्रिया
बीमारियों को ठीक करने में सहायक
होती है। दवाइयों से भी
यही क्रिया कराई जाती है, जो मंदिर
जाने से होती है।
प्रार्थना : प्रार्थना में शक्ति होती है। प्रार्थना
करने वाला व्यक्ति मंदिर के ईथर माध्यम से जुड़कर
अपनी बात ईश्वर तक पहुंचा सकता है। दूसरा
यह कि प्रार्थना करने से मन में विश्वास और सकारात्मक भाव
जाग्रत होते हैं, जो जीवन के विकास और सफलता
के अत्यंत जरूरी हैं।
कीर्तन-भजन : ईश्वर, भगवान या गुरु के प्रति
स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक
शांति और संगीतमय तरीका है
कीर्तन। इसे ही भजन कहते हैं।
भजन करने से शांति मिलती है। भजन करने के
भी नियम हैं। गीतों की
तर्ज पर निर्मित भजन, भजन नहीं होते।
शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन
ही भजन होते हैं। सामवेद में
शास्त्रीय संगीत का उल्लेख मिलता है।
ध्यान : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता, ध्यान
का मूलत: अर्थ है जागरूकता। अवेयरनेस। होश।
साक्षी भाव। ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस
बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है।
शरीर पर, मन पर और आसपास जो भी
घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रियाकलापों पर और भावों
पर। इस ध्यान देने के जरा से प्रयास से ही हम
अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ा सकते हैं।
ध्यान को ज्ञानियों ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ध्यान से मनोकामनाओं
की पूर्ति होती है और ध्यान से मोक्ष
का द्वार खुलता है।
प्रार्थना का रहस्य : आपकी प्रार्थना या ध्यान का
महत्व तभी है जबकि आप किसी
भव्य मंदिर के दर्शन करते हैं। गुंबद या पिरामिडनुमा भव्य
मंदिर आपकी समस्याओं का हल करने में सक्षम
हैं। आकाश के नीचे बैठकर जब हम प्रभु के
सामने प्रार्थना करते हैं तो उससे उपन्न तरंगें ब्रह्मांड में
कहीं बिखर जाती हैं जबकि मंदिर में
बने गुंबदनुमा आकाश के नीचे बैठकर जो प्रार्थना
की जाती है उसका एक वर्तुल बन
जाता है और वह ज्यादा असरकारक होती है।
यह आपका विश्वास या मस्तिष्क का विचार ही
है कि मंदिर में बैठकर वह इतना शक्तिशाली हो
जाता है कि वह संबंधित देवता तक पहुंच जाता है या
ब्रह्मांड में वर्तुलाकर में चला जाता है। आप जैसा सोचते
और महसूस करते हैं वैसी ही
तस्वीर आपके अवचेतन मन में बनती
है और वैसा ही आपका भविष्य बनने लगता है।
आप ध्वनि और चित्र के विज्ञान को समझें।
और यही चीज जब आप गुंबद के
नीचे करते हैं अर्थात पूरे मन के साथ अपने
प्रभु का जाप करते हैं तो उससे निकली तरंगें पूरे
गुंबद में गूंजती हैं। मंदिर का गुंबद
आपकी गूंजी हुई ध्वनि को आप तक
लौटाकर एक वर्तुल (सर्कल) निर्मित करवा देता है। उस
वर्तुल का आनंद ही अद्भुत है। अगर आप
खुले आकाश के नीचे जाप करेंगे तो वर्तुल निर्मित
नहीं होगा और भगवान को की गई
आपकी प्रार्थना ब्रह्मांड में बिखर
जाएगी। गुंबद के नीच प्रार्थना का
वर्तुल बनेगा, जो बहुत समय तक जिंदा रहेगा और वह
संबंधित देवता तक पहुंच जाएगा।

हिन्दू मंदिर के 10 रहस्य जानकर आप
रह जाएंगे हैरान

1. कैलाश मानसरोवर।
2. चार धाम : बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम,
जगन्नाथपुरी।
3. द्वादश ज्योतिर्लिंग : सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर,
श्रीशैल, भीमाशंकर,
ॐकारेश्वर, केदारनाथ, विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर,
रामेश्वरम, घृष्णेश्वर, बैद्यनाथ।
4. बावन शक्तिपीठ : हिंगुल या हिंगलाज
(पाकिस्तान), शर्कररे (करवीर, कराची,
पाकिस्तान), सुगंधा, सुनंदा (शिकारपुर, बांग्लादेश), महामाया
(अमरनाथ के पास कश्मीर, भारत), सिद्धिदा अंबिका
ज्वालादेवीजी (कांगड़ा, हिमाचल भारत),
त्रिपुरमालिनी भीषण (जालंधर, पंजाब,
भारत), जय दुर्गा बैद्यनाथधाम (देवघर, झारखंड), महशिरा
गुजयेश्वरी मंदिर (काठमांडू, नेपाल), मानस
दाक्षायणी (मनसा, मानसरोवर, तिब्बत), विरजा,
विरजाक्षेत्र (ओडिशा, भारत), गण्डकी
चण्डी चक्रपाणि (पोखरा, गंडक नदी,
नेपाल), बहुला चंडिका (वर्धमान, पश्चिम बंगाल, भारत), मंगल
चंद्रिका (उज्जैन, मध्यप्रदेश, भारत), त्रिपुर
सुंदरी (उदरपुर, त्रिपुरा, भारत), छत्राल चट्टल
भवानी (चंद्रनाथ पर्वत, चटगांव, बांग्लादेश),
त्रिस्रोत भ्रामरी (जलपाईगुड़ी, पश्चिम
बंगाल, भारत), कामगिरि कामाख्या (गुवाहाटी,
नीलांचल पर्वत, असम, भारत), ललिता (प्रयाग,
उत्तरप्रदेश, भारत), जयंती (सिल्हैट
जयंतीया, बांग्लादेश), युगाद्या, भूतधात्री
(वर्धमान जिला खीरग्राम स्थित जुगाड्या, पश्चिम
बंगाल, भारत), कालिका कालीपीठ
(कोलकाता, पश्चिम बंगाल, भारत), किरीट, विमला
भुवनेशी (मुर्शिदाबाद जिला किरीटकोण
ग्राम, ‍पश्चिम बंगाल, भारत), मणिकर्णिका
विशालाक्षी (वाराणसी, उत्तरप्रदेश,
भारत), श्रवणी, सर्वाणी (कन्याश्रम,
अज्ञात स्थान), सावित्री (हरियाणा, कुरुक्षेत्र,
भारत), गायत्री (पुष्कर, राजस्थान, भारत),
श्रीशैल महालक्ष्मी (सिल्हैट जिला,
जौनपुर ग्राम, बांग्लादेश), कांची देवगर्भ
(वीरभूमि जिला, बोलापुर स्टेशन, कोपई
नदी, पश्चिम बंगाल, भारत), काली
(अमरकंटक, कालमाधव, शोन नदी, मध्यप्रदेश,
भारत), शोणाक्षी नर्मदा (अमरकंटक, शोणदेश,
मध्यप्रदेश, भारत), शिवानी (चित्रकूट, रामगिरि,
उत्तरप्रदेश, भारत), उमा (वृंदावन, भूतेश्वर, उत्तरप्रदेश,
भारत), शुचि नारायणी (कन्याकुमारी,
तिरुवनंतपुरम मार्ग, शुचितीर्थम, तमिलनाडु, भारत),
वाराही (पंचसागर, अज्ञात स्थान), अर्पण
(शेरपुर बागुरा स्टेशन, भवानीपुर ग्राम, करतोया तट,
बांग्लादेश), श्रीसुंदरी
(श्रीपर्वत, लद्दाख, जम्मू और
कश्मीर, भारत), कपालिनी
भीमरूप (मेदिनीपुर, तामलुक, विभाष,
पश्चिम बंगाल, भारत), चंद्रभागा (जूनागढ़, सोमनाथ, वेरागल,
प्रभाष, गुजरात, भारत), अवंति (उज्जैन, भैरव पर्वत, शिप्रा
नदी, मध्यप्रदेश, भारत), भ्रामरी
(नासिक, जनस्थान, गोदावरी नदी,
महाराष्ट्र, भारत), सर्वशैल राकिनी
(राजामुंद्री, गोदावरी नदी
तट, सर्वशैल, आंध्रप्रदेश, भारत), विश्वेश्वरी
(गोदावरी तीर, भारत),
रत्नावली कुमारी (हुगली
जिला, खानाकुल, कृष्णानगर मार्ग, रत्नाकर नदी
तट, पश्चिम बंगाल, भारत), उमा महादेवी
(जनकपुर, मिथिला, भारत-नेपाल सीमा), कालिका
तारापीठ (वीरभूमि जिला, नलहाटि
स्टेशन, पश्चिम बंगाल, भारत), कर्नाट जयदुर्गा (कर्नाट,
अज्ञात स्थान), महिषमर्दिनी
(वीरभूमि जिला, दुबराजपुर स्टेशन, पापहर
नदी तट वक्रेश्वर, ‍पश्चिम बंगाल, भारत),
यशोरेश्वरी (खुलना जिला, ईश्वरीपुर,
यशोर, बांग्लादेश), अट्टहास फुल्लरा (लाभपुर स्टेशन,
अट्टहास, पश्चिम बंगाल, भारत), नंदिनी
(वीरभूमि जिला, सैंथिया रेलवे स्टेशन,
नंदीपुर, चारदीवारी, पश्चिम
बंगाल, भारत), इंद्रक्षी (त्रिंकोमाली,
श्रीलंका), विराट, अंबिका (अज्ञात स्थान),
सर्वानन्दकरी (मगध, बिहार, भारत)।
5. सप्तपुरी : काशी, मथुरा, अयोध्या,
द्वारका, माया, कांची और अवंति (उज्जैन)।
6. अन्य तीर्थ :
दुर्गा के प्रमुख तीर्थ : दाक्षायनी
(मानसरोवर), मां वैष्णोदेवी (जम्मू, कटरा),
मनसादेवी (हरिद्वार), कालीमाता
(पावागढ़), नयना देवी (नैनीताल), शारदा
मैया (मैहर), कालका माता (कोलकाता), ज्वालामुखी
(कांगड़ा), भवानी माता (पूना), तुलजा
भवानी (तुलजापुर), चामुंडा देवी
(धर्मशाला, जोधपुर और देवास), अम्बाजी मंदिर
(माउंट आबू के पास), अर्बुदा देवी
(नीलगिरि, माउंट आबू पर्वत), तुलजा, चामुंडा (देवास
माता टेकरी), बिजासन टेकरी (इंदौर),
गढ़ कालिका, हरसिद्धि (उज्जैन), मुम्बादेवी
(मुंबई), सप्तश्रृंगी देवी (नासिक के
पास), मां मनुदेवी (भुसावल, यावल आड़गांव),
त्रिशक्ति पीठम (अमरावती, विजयवाड़ा,
आंध्रप्रदेश), आट्टुकाल भगवती (तिरुवनंतपुरम),
श्रीलयराई देवी (गोवा), कामाख्या
(गुवाहाटी), गुह्म कालिका (नेपाल),
महाकाली (काशी), कौशिकी
देवी (अल्मोड़ा), सातमात्रा (ओंकारेश्वर), कालका
(देहली-शिमला रोड पर), नगरकोट की
देवी (कांगड़ा पठानकोट, योगीन्द्रनगर
लाइन पर भगवती विद्येश्वरी),
भगवती कालिका (चित्तौड़), भगवती
पटेश्वरी, योगमाया, कालिका (कुतुबमीनार
के पास दूसरा ओखला नामक ग्राम में), पथकोट की
देवी (पठानकोट), ललिता देवी
(इलाहाबाद, कड़ा), पूर्णागिरि (नेपाल की सरहद पर
शारदा नदी के किनारे), माता कुडिया (चेन्नई),
देवी चामुंडा, भेरुण्डा (मैसूर), श्री
विंध्यवासिनी (विंध्याचल), तारादेवी
(कण्डाघाट स्टेशन)।
और भी : तिरुपति बालाजी,
शिर्डी, बाबा रामदेवजी (रामद्वारा),
श्रीनाथजी, गजानन महाराज, दादा
धूनी वाले, शीलनाथ (देवास), गोगा
महाराज, पंढरपुर दत्तात्रेय महाराज आदि